Bhuteshwar Nath Shivling History In Hindi : छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के मरौदा गांव में घने जंगलों बीच एक प्राकर्तिक शिवलिंग है जो की भूतेश्वर नाथ के नाम से प्रसिद्ध है। यह विशव का सबसे बड़ा प्राकर्तिक शिवलिंग है। सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह है की यह शिवलिंग अपने आप बड़ा और मोटा होता जा रहा है। यह जमीन से लगभग 18 फीट उंचा एवं 20 फीट गोलाकार है। राजस्व विभाग द्वारा प्रतिवर्ष इसकी उचांई नापी जाती है जो लगातार 6 से 8 इंच बढ रही है।
इस शिवलिंग के बारे में बताया जाता है कि आज से सैकडो वर्ष पूर्व जमीदारी प्रथा के समय पारागांव निवासी शोभासिंह जमींदार की यहां पर खेती बाडी थी। शोभा सिंह शाम को जब अपने खेत मे घुमने जाता था तो उसे खेत के पास एक विशेष आकृति नुमा टीले से सांड के हुंकारने (चिल्लानें) एवं शेर के दहाडनें की आवाज आती थी। अनेक बार इस आवाज को सुनने के बाद शोभासिंह ने उक्त बात ग्रामवासियों को बताई।
ग्राम वासियो ने भी शाम को उक्त आवाजे अनेक बार सुनी। तथा आवाज करने वाले सांड अथवा शेर की आसपास खोज की। परतु दूर दूर तक किसी जानवर के नहीं मिलने पर इस टीले के प्रति लोगो की श्रद्वा बढने लगी। और लोग इस टीले को शिवलिंग के रूप में मानने लगे। इस बारे में पारा गावं के लोग बताते है कि पहले यह टीला छोटे रूप में था। धीरे धीरे इसकी उचाई एवं गोलाई बढती गई। जो आज भी जारी है। इस शिवलिंग में प्रकृति प्रदत जललहरी भी दिखाई देती है। जो धीरे धीरे जमीन के उपर आती जा रही है।
यहीं स्थान भुतेश्वरनाथ, भकुरा महादेव के नाम से जाना जाता है। इस शिवलिंग का पौराणिक महत्व सन 1959 में गोरखपुर से प्रकाषित धार्मिक पत्रिका कल्याण के वार्षिक अंक के पृष्ट क्रमांक 408 में उल्लेखित है जिसमें इसे विश्व का एक अनोखा महान
यह भी किंवदंती है कि इनकी पूजा बिंदनवागढ़ के छुरा नरेश के पूर्वजों द्वारा की जाती थी। दंत कथा है कि भगवान शंकर-पार्वती ऋषि मुनियों के आश्रमों में भ्रमण करने आए थे, तभी यहां शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए।
घने जंगलों के बीच स्तिथ होने के बावजूद यहाँ पर सावन में कावड़ियों का हुजूम उमड़ता है। इसके अलावा शिवरात्री पर भी यहाँ विशाल मेला भरता है।
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इस शिवलिंग के बारे में बताया जाता है कि आज से सैकडो वर्ष पूर्व जमीदारी प्रथा के समय पारागांव निवासी शोभासिंह जमींदार की यहां पर खेती बाडी थी। शोभा सिंह शाम को जब अपने खेत मे घुमने जाता था तो उसे खेत के पास एक विशेष आकृति नुमा टीले से सांड के हुंकारने (चिल्लानें) एवं शेर के दहाडनें की आवाज आती थी। अनेक बार इस आवाज को सुनने के बाद शोभासिंह ने उक्त बात ग्रामवासियों को बताई।
ग्राम वासियो ने भी शाम को उक्त आवाजे अनेक बार सुनी। तथा आवाज करने वाले सांड अथवा शेर की आसपास खोज की। परतु दूर दूर तक किसी जानवर के नहीं मिलने पर इस टीले के प्रति लोगो की श्रद्वा बढने लगी। और लोग इस टीले को शिवलिंग के रूप में मानने लगे। इस बारे में पारा गावं के लोग बताते है कि पहले यह टीला छोटे रूप में था। धीरे धीरे इसकी उचाई एवं गोलाई बढती गई। जो आज भी जारी है। इस शिवलिंग में प्रकृति प्रदत जललहरी भी दिखाई देती है। जो धीरे धीरे जमीन के उपर आती जा रही है।
यहीं स्थान भुतेश्वरनाथ, भकुरा महादेव के नाम से जाना जाता है। इस शिवलिंग का पौराणिक महत्व सन 1959 में गोरखपुर से प्रकाषित धार्मिक पत्रिका कल्याण के वार्षिक अंक के पृष्ट क्रमांक 408 में उल्लेखित है जिसमें इसे विश्व का एक अनोखा महान
यह भी किंवदंती है कि इनकी पूजा बिंदनवागढ़ के छुरा नरेश के पूर्वजों द्वारा की जाती थी। दंत कथा है कि भगवान शंकर-पार्वती ऋषि मुनियों के आश्रमों में भ्रमण करने आए थे, तभी यहां शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए।
घने जंगलों के बीच स्तिथ होने के बावजूद यहाँ पर सावन में कावड़ियों का हुजूम उमड़ता है। इसके अलावा शिवरात्री पर भी यहाँ विशाल मेला भरता है।
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