Hindi Stories of Mythological Children : हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक बच्चों के बारे में बताया गया है जिन्होंने कम उम्र में ही कुछ ऐसे काम किए, जिन्हें करना किसी के बस में नहीं था। लेकिन अपनी ईमानदारी, निष्ठा व समर्पण के बल पर उन्होंने मुश्किल काम भी बहुत आसानी से कर दिए। आज हम आपको 8 ऐसे ही बच्चों के बारे में बता रहे हैं-
1. बालक ध्रुव (Balak Dhruv)
बालक ध्रुव की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। उसके अनुसार ध्रुव के पिता का नाम उत्तानपाद था। उनकी दो पत्नियां थीं, सुनीति और सुरुचि। ध्रुव सुनीति का पुत्र था। एक बार सुरुचि ने बालक ध्रुव को यह कहकर राजा उत्तानपाद की गोद से उतार दिया कि मेरे गर्भ से पैदा होने वाला ही गोद और सिंहासन का अधिकारी है। बालक ध्रुव रोते हुए अपनी मां सुनीति के पास पहुंचा। मां ने उसे भगवान की भक्ति के माध्यम से ही लोक-परलोक के सुख पाने का रास्ता सूझाया।
माता की बात सुनकर ध्रुव ने घर छोड़ दिया और वन में पहुंच गया। यहां देवर्षि नारद की कृपा से ऊं नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र की दीक्षा ली। यमुना नदी के किनारे मधुवन में बालक ध्रुव ने इस महामंत्र को बोल घोर तप किया। इतने छोटे बालक की तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए। भगवान विष्णु ने बालक ध्रुव को ध्रुवलोक प्रदान किया। आकाश में दिखाई देने वाला ध्रुव तारा बालक ध्रुव का ही प्रतीक है।
2. गुरुभक्त आरुणि (Guru bhakt Aruni)
महाभारत के अनुसार आयोदधौम्य नाम के एक ऋषि थे। उनके एक शिष्य का नाम आरुणि था। वह पांचालदेश का रहने वाला था। आरुणि अपने गुरु की हर आज्ञा का पालन करता था। एक दिन गुरुजी ने उसे खेत की मेढ़ बांधने के लिए भेजा। गुरु की आज्ञा से आरुणि खेत पर गया और मेढ़ बांधने का प्रयास करने लगा। काफी प्रयत्न करने के बाद भी जब वह खेत की मेढ़ नहीं बांध पाया तो मेढ़ के स्थान पर वह स्वयं लेट गया ताकि पानी खेत के अंदर न आ सके।
जब बहुत देर तक आरुणि आश्रम नहीं लौटा तो उसके गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढते हुए खेत तक आ गए। यहां आकर उन्होंने आरुणि को आवाज लगाई। गुरु की आवाज सुनकर आरुणि उठकर खड़ा हो गया। जब उसने पूरी बात अपने गुरु को बताई तो आरुणि की गुरुभक्ति देखकर गुरु आयोदधौम्य बहुत प्रसन्न हुए और उसे सारे वेद और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो जाने का आशीर्वाद दिया।
3. परमज्ञानी अष्टावक्र (Ashtavakra rishi)
प्राचीन काल में कहोड नामक एक ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम सुजाता था। समय आने पर सुजाता गर्भवती हुई। एक दिन जब कहोड वेदपाठ कर रहे थे, तभी सुजाता के गर्भ में स्थित शिशु बोला – पिताजी। आप रातभर वेदपाठ करते हैं, किंतु वह ठीक से नहीं होता। गर्भस्थ शिशु के इस प्रकार कहने पर कहोड क्रोधित होकर बोले कि- तू पेट में ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें करता है, इसलिए तू आठ स्थानों से टेढ़ा उत्पन्न होगा। इस घटना के कुछ दिन बाद कहोड राजा जनक के पास धन की इच्छा से गए।
वहां बंदी नामक विद्वान से वे शास्त्रार्थ में हार गए। नियमानुसार उन्हें जल में डूबा दिया गया। कुछ दिनों बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ किंतु उसकी माता ने उसे कुछ नहीं बताया। जब अष्टावक्र 12 वर्ष का हुआ, तब एक दिन उसने अपनी माता से पिता के बारे पूछा। तब माता ने उसे पूरी बात सच-सच बता दी। अष्टावक्र भी राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ करने के लिए गया। यहां अष्टावक्र और बंदी के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें अष्टावक्र ने उसे पराजित कर दिया।
अष्टावक्र ने राजा से कहा कि बंदी को भी नियमानुसार जल में डूबा देना चाहिए। तब बंदी ने बताया कि वह जल के स्वामी वरुणदेव का पुत्र है। उसने जितने भी विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराकर जल में डुबाया है, वे सभी वरुण लोक में हैं। उसी समय जल में डूबे हुए सभी ब्राह्मण पुन: बाहर आ गए। अष्टावक्र के पिता कहोड भी जल से निकल आए। अष्टावक्र के विषय में जानकर उन्हें बहुत प्रसन्न हुई और पिता के आशीर्वाद से अष्टावक्र का शरीर सीधा हो गया।
4. आस्तिक (Aastik)
महाभारत के अनुसार आस्तिक ने ही राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ को रुकवाया था। आस्तिक के पिता जरत्कारु ऋषि थे और उनकी माता का नाम भी जरत्कारु था। आस्तिक की माता नागराज वासुकि की बहन थी। जब राजा जनमेजय को पता चला कि उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने पर हुई थी तो उन्होंने सर्प यज्ञ करने का निर्णय लिया। उस यज्ञ में दूर-दूर से भयानक सर्प आकर गिरने लगे। जब यह बात नागराज वासुकि को पता चली तो उन्होंने आस्तिक से इस यज्ञ को रोकने के लिए निवेदन किया।
आस्तिक यज्ञ स्थल पर जाकर ज्ञान की बातें करने लगे, जिसे सुनकर राजा जनमेजय बहुत प्रसन्न हुए। जनमेजय ने आस्तिक को वरदान मांगने के लिए कहा, तब आस्तिक ने राजा से सर्प यज्ञ बंद करने के लिए निवेदन किया। राजा जनमेजय ने पहले तो ऐसा करने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में वहां उपस्थित ब्राह्मणों के कहने पर उन्होंने सर्प यज्ञ रोक दिया और आस्तिक की प्रशंसा की।
5. भक्त प्रह्लाद (Bhakt Prahlad)
बालक प्रह्लाद की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु दैत्यों के राजा थे। वह भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था परंतु प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब यह बात हिरण्यकश्यपु को पता चली तो उसने प्रह्लाद पर अनेक अत्याचार किए, लेकिन फिर भी प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति कम न हुई। अंत में स्वयं भगवान विष्णु प्रह्लाद की रक्षा के लिए नृसिंह अवतार लेकर प्रकट हुए। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया और प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठा कर प्रेम किया।
6. गुरुभक्त उपमन्यु (Guru bhakt Upamanyu)
गुरु आयोदधौम्य के एक शिष्य का नाम उपमन्यु था। वह बड़ा गुरुभक्त था। गुरु की आज्ञा से वह रोज गाय चराने जाता था। एक दिन गुरु ने उससे पूछा कि तुम अन्य शिष्यों से मोटे और बलवान दिख रहे हो। तुम क्या खाते हो? तब उपमन्यु ने बताया कि मैं भिक्षा मांगकर ग्रहण कर लेता हूं। गुरु ने उससे कहा कि मुझे निवेदन किया बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। उपमन्यु ने गुरुजी की बात मान ली।
कुछ दिनों बाद पुन: गुरुजी ने उपमन्यु से वही प्रश्न पूछा तो उसने बताया कि वह गायों का दूध पीकर अपनी भूख मिटाता है। तब गुरु ने उसे ऐसा करने से भी मना कर दिया, लेकिन इसके बाद भी उपमन्यु के पहले जैसे दिखने पर गुरुजी ने उससे पुन: वही प्रश्न किया। तब उपमन्यु ने बताया कि बछड़े गाय का दूध पीकर जो फेन (झाग) उगल देते हैं, वह उसका सेवन करता है। गुरु आयोदधौम्य ने उसे ऐसा करने से भी मना कर दिया।
जब उपमन्यु के सामने खाने-पीने के सभी रास्ते बंद हो गए तब उसने एक दिन भूख से व्याकुल होकर आकड़े के पत्ते खा लिए। वह पत्ते जहरीले थे। उन्हें खाकर उपमन्यु अंधा हो गया और वह वन में भटकने लगा। दिखाई न देने पर उपमन्यु एक कुएं में गिर गया। जब उपमन्यु शाम तक आश्रम नहीं लौटा तो गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढने वन में पहुंचे। वन में जाकर गुरु ने उसे आवाज लगाई तब उपमन्यु ने बताया कि वह कुएं में गिर गया है।
गुरु ने जब इसका कारण पूछा तो उसने सारी बात सच-सच बता दी। तब गुरु आयोदधौम्य ने उपमन्यु को देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार की स्तुति करने के लिए कहा। उपमन्यु ने ऐसा ही किया। स्तुति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उपमन्यु को एक फल देकर बोले कि इसे खाने से तुम पहले की तरह स्वस्थ हो जाओगे। उपमन्यु ने कहा कि बिना अपने गुरु को निवेदन किए मैं यह फल नहीं खा सकता।
उपमन्यु की गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विन कुमार ने उसे पुन: पहले की तरह स्वस्थ होने का वरदान दिया, जिससे उसकी आंखों की रोशनी भी पुन: लौट आई। गुरु के आशीर्वाद से उसे सारे वेद और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो गया।
7. मार्कण्डेय ऋषि (Markandeya Rishi)
धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि अमर हैं। आठ अमर लोगों में मार्कण्डेय ऋषि का भी नाम आता है। इनके पिता मर्कण्डु ऋषि थे। जब मर्कण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान शिव की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रकट हुए भगवान शिव ने उनसे पूछा कि वे गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हैं या गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र। तब मर्कण्डु ऋषि ने कहा कि उन्हें अल्पायु लेकिन गुणी पुत्र चाहिए। भगवान शिव ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
जब मार्कण्डेय ऋषि 16 वर्ष के होने वाले थे, तब उन्हें ये बात अपनी माता द्वारा पता चली। अपनी मृत्यु के बारे में जानकर वे विचलित नहीं हुए और शिव भक्ति में लीन हो गए। इस दौरान सप्तऋषियों की सहायता से ब्रह्मदेव से उनको महामृत्युंजय मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र का प्रभाव यह हुआ कि जब यमराज तय समय पर उनके प्राण हरने आए तो शिव भक्ति में लीन मार्कण्डेय ऋषि को बचाने के लिए स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए और उन्होंने यमराज के वार को बेअसर कर दिया। बालक मार्कण्डेय की भक्ति देखकर भगवान शिव ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया।
8. गुरुभक्त एकलव्य (Guru bhakt Eklavya)
एकलव्य की कथा का वर्णन महाभारत में मिलता है। उसके अनुसार एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र था। वह गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने गया था, लेकिन राजवंश का न होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाई और उसे ही गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एक बार गुरु द्रोणाचार्य के साथ सभी राजकुमार शिकार के लिए वन में गए।
उस वन में एकलव्य अभ्यास कर रहा था। अभ्यास के दौरान कुत्ते के भौंकने पर एकलव्य ने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। जब द्रोणाचार्य व राजकुमारों ने कुत्ते को इस हाल में देखा तो वे उस धनुर्धर को ढूंढने लगे, जिसने इतनी कुशलता से बाण चलाए थे। एकलव्य को ढूंढने पर द्रोणाचार्य ने उससे उसके गुरु के बारे में पूछा। एकलव्य ने बताया कि उसने प्रतिमा के रूप में ही द्रोणाचार्य को अपना गुरु माना है। तब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपने अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया।
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1. बालक ध्रुव (Balak Dhruv)
बालक ध्रुव की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। उसके अनुसार ध्रुव के पिता का नाम उत्तानपाद था। उनकी दो पत्नियां थीं, सुनीति और सुरुचि। ध्रुव सुनीति का पुत्र था। एक बार सुरुचि ने बालक ध्रुव को यह कहकर राजा उत्तानपाद की गोद से उतार दिया कि मेरे गर्भ से पैदा होने वाला ही गोद और सिंहासन का अधिकारी है। बालक ध्रुव रोते हुए अपनी मां सुनीति के पास पहुंचा। मां ने उसे भगवान की भक्ति के माध्यम से ही लोक-परलोक के सुख पाने का रास्ता सूझाया।
माता की बात सुनकर ध्रुव ने घर छोड़ दिया और वन में पहुंच गया। यहां देवर्षि नारद की कृपा से ऊं नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र की दीक्षा ली। यमुना नदी के किनारे मधुवन में बालक ध्रुव ने इस महामंत्र को बोल घोर तप किया। इतने छोटे बालक की तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए। भगवान विष्णु ने बालक ध्रुव को ध्रुवलोक प्रदान किया। आकाश में दिखाई देने वाला ध्रुव तारा बालक ध्रुव का ही प्रतीक है।
2. गुरुभक्त आरुणि (Guru bhakt Aruni)
महाभारत के अनुसार आयोदधौम्य नाम के एक ऋषि थे। उनके एक शिष्य का नाम आरुणि था। वह पांचालदेश का रहने वाला था। आरुणि अपने गुरु की हर आज्ञा का पालन करता था। एक दिन गुरुजी ने उसे खेत की मेढ़ बांधने के लिए भेजा। गुरु की आज्ञा से आरुणि खेत पर गया और मेढ़ बांधने का प्रयास करने लगा। काफी प्रयत्न करने के बाद भी जब वह खेत की मेढ़ नहीं बांध पाया तो मेढ़ के स्थान पर वह स्वयं लेट गया ताकि पानी खेत के अंदर न आ सके।
जब बहुत देर तक आरुणि आश्रम नहीं लौटा तो उसके गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढते हुए खेत तक आ गए। यहां आकर उन्होंने आरुणि को आवाज लगाई। गुरु की आवाज सुनकर आरुणि उठकर खड़ा हो गया। जब उसने पूरी बात अपने गुरु को बताई तो आरुणि की गुरुभक्ति देखकर गुरु आयोदधौम्य बहुत प्रसन्न हुए और उसे सारे वेद और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो जाने का आशीर्वाद दिया।
3. परमज्ञानी अष्टावक्र (Ashtavakra rishi)
प्राचीन काल में कहोड नामक एक ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम सुजाता था। समय आने पर सुजाता गर्भवती हुई। एक दिन जब कहोड वेदपाठ कर रहे थे, तभी सुजाता के गर्भ में स्थित शिशु बोला – पिताजी। आप रातभर वेदपाठ करते हैं, किंतु वह ठीक से नहीं होता। गर्भस्थ शिशु के इस प्रकार कहने पर कहोड क्रोधित होकर बोले कि- तू पेट में ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें करता है, इसलिए तू आठ स्थानों से टेढ़ा उत्पन्न होगा। इस घटना के कुछ दिन बाद कहोड राजा जनक के पास धन की इच्छा से गए।
वहां बंदी नामक विद्वान से वे शास्त्रार्थ में हार गए। नियमानुसार उन्हें जल में डूबा दिया गया। कुछ दिनों बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ किंतु उसकी माता ने उसे कुछ नहीं बताया। जब अष्टावक्र 12 वर्ष का हुआ, तब एक दिन उसने अपनी माता से पिता के बारे पूछा। तब माता ने उसे पूरी बात सच-सच बता दी। अष्टावक्र भी राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ करने के लिए गया। यहां अष्टावक्र और बंदी के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें अष्टावक्र ने उसे पराजित कर दिया।
अष्टावक्र ने राजा से कहा कि बंदी को भी नियमानुसार जल में डूबा देना चाहिए। तब बंदी ने बताया कि वह जल के स्वामी वरुणदेव का पुत्र है। उसने जितने भी विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराकर जल में डुबाया है, वे सभी वरुण लोक में हैं। उसी समय जल में डूबे हुए सभी ब्राह्मण पुन: बाहर आ गए। अष्टावक्र के पिता कहोड भी जल से निकल आए। अष्टावक्र के विषय में जानकर उन्हें बहुत प्रसन्न हुई और पिता के आशीर्वाद से अष्टावक्र का शरीर सीधा हो गया।
4. आस्तिक (Aastik)
महाभारत के अनुसार आस्तिक ने ही राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ को रुकवाया था। आस्तिक के पिता जरत्कारु ऋषि थे और उनकी माता का नाम भी जरत्कारु था। आस्तिक की माता नागराज वासुकि की बहन थी। जब राजा जनमेजय को पता चला कि उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने पर हुई थी तो उन्होंने सर्प यज्ञ करने का निर्णय लिया। उस यज्ञ में दूर-दूर से भयानक सर्प आकर गिरने लगे। जब यह बात नागराज वासुकि को पता चली तो उन्होंने आस्तिक से इस यज्ञ को रोकने के लिए निवेदन किया।
आस्तिक यज्ञ स्थल पर जाकर ज्ञान की बातें करने लगे, जिसे सुनकर राजा जनमेजय बहुत प्रसन्न हुए। जनमेजय ने आस्तिक को वरदान मांगने के लिए कहा, तब आस्तिक ने राजा से सर्प यज्ञ बंद करने के लिए निवेदन किया। राजा जनमेजय ने पहले तो ऐसा करने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में वहां उपस्थित ब्राह्मणों के कहने पर उन्होंने सर्प यज्ञ रोक दिया और आस्तिक की प्रशंसा की।
5. भक्त प्रह्लाद (Bhakt Prahlad)
बालक प्रह्लाद की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु दैत्यों के राजा थे। वह भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था परंतु प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब यह बात हिरण्यकश्यपु को पता चली तो उसने प्रह्लाद पर अनेक अत्याचार किए, लेकिन फिर भी प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति कम न हुई। अंत में स्वयं भगवान विष्णु प्रह्लाद की रक्षा के लिए नृसिंह अवतार लेकर प्रकट हुए। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया और प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठा कर प्रेम किया।
6. गुरुभक्त उपमन्यु (Guru bhakt Upamanyu)
गुरु आयोदधौम्य के एक शिष्य का नाम उपमन्यु था। वह बड़ा गुरुभक्त था। गुरु की आज्ञा से वह रोज गाय चराने जाता था। एक दिन गुरु ने उससे पूछा कि तुम अन्य शिष्यों से मोटे और बलवान दिख रहे हो। तुम क्या खाते हो? तब उपमन्यु ने बताया कि मैं भिक्षा मांगकर ग्रहण कर लेता हूं। गुरु ने उससे कहा कि मुझे निवेदन किया बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। उपमन्यु ने गुरुजी की बात मान ली।
कुछ दिनों बाद पुन: गुरुजी ने उपमन्यु से वही प्रश्न पूछा तो उसने बताया कि वह गायों का दूध पीकर अपनी भूख मिटाता है। तब गुरु ने उसे ऐसा करने से भी मना कर दिया, लेकिन इसके बाद भी उपमन्यु के पहले जैसे दिखने पर गुरुजी ने उससे पुन: वही प्रश्न किया। तब उपमन्यु ने बताया कि बछड़े गाय का दूध पीकर जो फेन (झाग) उगल देते हैं, वह उसका सेवन करता है। गुरु आयोदधौम्य ने उसे ऐसा करने से भी मना कर दिया।
जब उपमन्यु के सामने खाने-पीने के सभी रास्ते बंद हो गए तब उसने एक दिन भूख से व्याकुल होकर आकड़े के पत्ते खा लिए। वह पत्ते जहरीले थे। उन्हें खाकर उपमन्यु अंधा हो गया और वह वन में भटकने लगा। दिखाई न देने पर उपमन्यु एक कुएं में गिर गया। जब उपमन्यु शाम तक आश्रम नहीं लौटा तो गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढने वन में पहुंचे। वन में जाकर गुरु ने उसे आवाज लगाई तब उपमन्यु ने बताया कि वह कुएं में गिर गया है।
गुरु ने जब इसका कारण पूछा तो उसने सारी बात सच-सच बता दी। तब गुरु आयोदधौम्य ने उपमन्यु को देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार की स्तुति करने के लिए कहा। उपमन्यु ने ऐसा ही किया। स्तुति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उपमन्यु को एक फल देकर बोले कि इसे खाने से तुम पहले की तरह स्वस्थ हो जाओगे। उपमन्यु ने कहा कि बिना अपने गुरु को निवेदन किए मैं यह फल नहीं खा सकता।
उपमन्यु की गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विन कुमार ने उसे पुन: पहले की तरह स्वस्थ होने का वरदान दिया, जिससे उसकी आंखों की रोशनी भी पुन: लौट आई। गुरु के आशीर्वाद से उसे सारे वेद और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो गया।
7. मार्कण्डेय ऋषि (Markandeya Rishi)
धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि अमर हैं। आठ अमर लोगों में मार्कण्डेय ऋषि का भी नाम आता है। इनके पिता मर्कण्डु ऋषि थे। जब मर्कण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान शिव की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रकट हुए भगवान शिव ने उनसे पूछा कि वे गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हैं या गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र। तब मर्कण्डु ऋषि ने कहा कि उन्हें अल्पायु लेकिन गुणी पुत्र चाहिए। भगवान शिव ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
जब मार्कण्डेय ऋषि 16 वर्ष के होने वाले थे, तब उन्हें ये बात अपनी माता द्वारा पता चली। अपनी मृत्यु के बारे में जानकर वे विचलित नहीं हुए और शिव भक्ति में लीन हो गए। इस दौरान सप्तऋषियों की सहायता से ब्रह्मदेव से उनको महामृत्युंजय मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र का प्रभाव यह हुआ कि जब यमराज तय समय पर उनके प्राण हरने आए तो शिव भक्ति में लीन मार्कण्डेय ऋषि को बचाने के लिए स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए और उन्होंने यमराज के वार को बेअसर कर दिया। बालक मार्कण्डेय की भक्ति देखकर भगवान शिव ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया।
8. गुरुभक्त एकलव्य (Guru bhakt Eklavya)
एकलव्य की कथा का वर्णन महाभारत में मिलता है। उसके अनुसार एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र था। वह गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने गया था, लेकिन राजवंश का न होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाई और उसे ही गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एक बार गुरु द्रोणाचार्य के साथ सभी राजकुमार शिकार के लिए वन में गए।
उस वन में एकलव्य अभ्यास कर रहा था। अभ्यास के दौरान कुत्ते के भौंकने पर एकलव्य ने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। जब द्रोणाचार्य व राजकुमारों ने कुत्ते को इस हाल में देखा तो वे उस धनुर्धर को ढूंढने लगे, जिसने इतनी कुशलता से बाण चलाए थे। एकलव्य को ढूंढने पर द्रोणाचार्य ने उससे उसके गुरु के बारे में पूछा। एकलव्य ने बताया कि उसने प्रतिमा के रूप में ही द्रोणाचार्य को अपना गुरु माना है। तब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपने अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया।
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