Facts about Ashwathama in Hindi : महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में ऐसे अनेक पात्र हैं, जिनके बारे में लोग जानना चाहते हैं। अश्वत्थामा भी उन्हीं में से एक हैं। अश्वत्थामा महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। हिंदू धर्म में जिन 8 महापुरुषों को अमर माना गया है, अश्वत्थामा भी उन्हीं से से एक है। मृत्यु से पहले दुर्योधन ने अश्वत्थामा को कौरवों का अंतिम सेनापति बनाया था। अश्वत्थामा से जुड़ी ऐसी अनेक रोचक बातें हैं, जो बहुत कम लोग जानते हैं। आज हम आपको वही बातें बता रहे हैं-
महादेव के अंशावतार हैं अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार, गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था। अश्वत्थामा महापराक्रमी था। युद्ध में उसने कौरवों का साथ दिया था। मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी जीवित है। इनका नाम अष्ट चिरंजीवियों में लिया जाता है। इस मान्यता से जुड़ा एक श्लोक भी है-
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात- अश्वथामा, बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।
अश्वत्थामा को अधिक ज्ञान देना चाहते थे द्रोणाचार्य
महाभारत के अनुसार, द्रोणाचार्य जब कौरवों व पांडवों को शिक्षा दे रहे थे, तब उनका एक नियम था। उसके अनुसार, द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों को पानी भरने का एक-एक बर्तन दिया था। जो सबसे पहले उस बर्तन में पानी भर लाता था, द्रोणाचार्य उसे धनुर्विद्या के गुप्त रहस्य सिखा देते थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर विशेष प्रेम था, इसलिए उन्होंने उसे छोटा बर्तन दिया था।
जिससे वह सबसे पहले बर्तन में पानी भर कर अपने पिता के पास पहुंच जाता और शस्त्रों से संबंधित गुप्त रहस्य समझ लेता था। अर्जुन ने वह बात समझ ली। अर्जुन वारुणास्त्र के माध्यम से जल्दी अपन बर्तन में पानी भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाते और गुप्त रहस्य सीख लेते। इसीलिए अर्जुन किसी भी मामले में अश्वत्थामा से कम नहीं थे।
जब अश्वत्थामा ने चलाया नारायण अस्त्र
युद्ध में जब धृष्टद्युम्न ने छल से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था तो अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हुए। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने पांडवों पर नारायण अस्त्र चलाया। इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों की सेना में खलबची मच गई। अश्वत्थामा ने इस अस्त्र के बारे में दुर्योधन को बताया- यह अस्त्र गुरु द्रोण को स्वयं भगवान नारायण ने दिया था। यह शत्रु का नाश किए बिना नहीं लौटता। नारायणास्त्र से अनेक प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश भी संभव है।
जब श्रीकृष्ण ने देखा कि नारायण अस्त्र से सेना भाग रही है और पांडवों के प्राण भी संकट में हैं, तब उन्होंने कहा – सभी अपने-अपने रथों व अन्य सवारियों से उतरकर, अपने शस्त्रों को नीचे रखकर इस अस्त्र की शरण में चले जाओ। नारायण अस्त्र की शांति का यही एकमात्र उपाय है। सभी ने श्रीकृष्ण की यह बात मान ली। इस प्रकार नारायण अस्त्र का प्रकोप शांत हुआ और पांडवों के प्राण बच गए।
जब श्रीकृष्ण-अर्जुन पर नहीं हुआ आग्नेय अस्त्र का असर
नारायण अस्त्र के विफल होने पर अश्वत्थामा ने आग्नेयअस्त्र का प्रयोग किया। ये अस्त्र भी महाभयंकर था। इसकी अग्नि से पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। उस अस्त्र के प्रभाव से हवा गरम हो गई। बड़े-बड़े हाथी चारों और चिघांड़ते हुए गिरने लगे। तब अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र चलाया। ब्रह्मास्त्र चलाते ही फिर से हवा गति से चलने लगी। अर्जुन, श्रीकृष्ण व उनके रथ पर भी आग्नेय अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ।
अर्जुन व श्रीकृष्ण पर आग्नेय अस्त्र का कोई भी प्रभाव न होते देख अश्वत्थामा को बहुत आश्चर्य हुआ। तभी महर्षि वेदव्यास वहां आए और उन्होंने अश्वत्थामा को बताया कि श्रीकृष्ण व अर्जुन भगवान नर-नारायण के अवतार हैं। उन पर किसी भी अस्त्र का प्रभाव नहीं हो सकता। पूर्व समय में भगवान नारायण ने तपस्या करके भगवान महादेव से अनेक वरदान प्राप्त किए हैं। उसी के प्रभाव से उन पर विजय पाना संभव नहीं है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अश्वत्थामा रणभूमि से चले गए।
अश्वत्थामा ने मांग लिया कृष्ण का सुदर्शन चक्र
एक बार अश्वत्थामा द्वारिका गए। भगवान कृष्ण ने उसका बहुत स्वागत किया और उसे अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया। कुछ दिन वहां रहने के बाद एक दिन अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो उसका अजेय ब्रह्मास्त्र लेकर उसे अपना सुदर्शन चक्र दे दें। भगवान ने कहा ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए।
अश्वत्थामा ने भगवान के सुदर्शन चक्र को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ। उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे असफलता मिली। उसने हारकर भगवान से चक्र न लेने की बात कही। अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुए। वह बिना किसी शस्त्र-अस्त्र को लिए ही द्वारिका से चले गए।
कौरवों का अंतिम सेनापति था अश्वत्थामा
जब भीम ने गदा युद्ध में दुर्योधन की जांघें तोड़ दी और मरने के लिए छोड़ दिया, तब वहां अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा आए। दुर्योधन को उस अवस्था में देख अश्वत्थामा ने प्रण किया कि वह पांडवों से बदला लेगा। दुर्योधन के कहने पर कृपाचार्य ने अश्वत्थामा को सेनापति बनाया। अश्वत्थामा ने सोचा कि रात के समय पांडव आदि वीर विजय प्राप्त कर अपने-अपने शिविरों में आराम कर रहे होंगे। अत: इसी अवस्था में उनका वध करना संभव है। (श्रीकृष्ण व पांडव उस समय कौरव शिविर में थे, ये बात अश्वत्थामा नहीं जानता था)। कृपाचार्य ने अश्वत्थामा से कहा कि रात्रि में सोते हुए वीरों पर प्रहार करना नियम विरुद्ध है, लेकिन अश्वत्थामा ने कृपाचार्य की बात नहीं मानी। अंत में कृपाचार्य व कृतवर्मा भी अश्वत्थामा का साथ देने के लिए राजी हो गए।
महादेव से युद्ध किया था अश्वत्थामा ने
पांडवों से बदला लेने के उद्देश्य से अश्वत्थामा जब रात के समय उनके शिविर तक पहुंचा। तो उसने देखा कि पांडवों के शिविर के बाहर एक विशालकाय पुरुष दरवाजे पर खड़ा है। उसने बाघ तथा हिरण की खाल पहन रखी है। उसकी अनेक भुजाएं हैं और उन भुजाओं में तरह-तरह के शस्त्र हैं। उसके मुख से आग की लपटें निकल रही हैं।
उस पुरुष के तेज से हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। वह स्वयं भगवान महादेव ही थे। महादेव के उस भयंकर रूप को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं और उन पर दिव्यास्त्रों से प्रहार करने लगा, लेकिन उन अस्त्रों का महादेव पर कोई असर नहीं हुआ। यह देख अश्वत्थामा भगवान शंकर की उपासना करने लगा और स्वयं की बलि देने लगा।
तब महादेव ने अश्वत्थामा से कहा कि श्रीकृष्ण ने तपस्या, नियम, बुद्धि व वाणी से मेरी आराधना की है। इसलिए उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा भी मैं उन्हीं के लिए कर रहा था। किंतु कालवश अब ये निस्तेज हो गए हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है। ऐसा कहकर महादेव ने अश्वत्थामा को एक तलवार दी और स्वयं को अश्वत्थामा के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार अश्वत्थामा अत्यंत तेजस्वी हो गया।
अश्वत्थामा ने किया था द्रौपदी के पुत्रों का वध
महादेव से शक्ति प्राप्त कर अश्वत्थामा ने पांडवों के शिविर में प्रवेश किया। अश्वत्थामा ने सबसे पहले द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न को पीट-पीट कर मार दिया। इसके बाद अश्वत्थामा ने उत्तमौजा, युधामन्यु, शिखंडी आदि वीरों का भी वध कर दिया। उसके बाद अश्वत्थामा ने महादेव की तलवार से द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों का भी वध कर दिया।
देखते ही देखते अश्वत्थामा ने पांडवों की बची हुई सेना का भी सफाया कर दिया। इस प्रकार का भयंकर कर्म करने के बाद अश्वत्थामा शिविर से बाहर आया और उसने पांचाल वीरों व द्रौपदी के पुत्रों के वध के बारे में कृतवर्मा व कृपाचार्य को बताया। तीनों ने निश्चय किया कि ये समाचार तुरंत ही दुर्योधन को बताना चाहिए।
ऐसा विचार कर ये तीनों दुर्योधन के पास पहुंचे। उस समय तक दुर्योधन ने प्राण नहीं त्यागे थे। दुर्योधन के पास जाकर अश्वत्थामा ने उसे बताया कि इस समय पांडव पक्ष में केवल श्रीकृष्ण, सात्यकि और पांडव ही शेष बचे हैं, शेष सभी का वध हो चुका है। ये समाचार सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हुआ पर थोड़ी ही देर में उसके प्राण निकल गए।
श्रीकृष्ण ने दिया था अश्वत्थामा को श्राप
जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।
अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी से बात नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर से पीब व रक्त बहता रहेगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।
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महादेव के अंशावतार हैं अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार, गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था। अश्वत्थामा महापराक्रमी था। युद्ध में उसने कौरवों का साथ दिया था। मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी जीवित है। इनका नाम अष्ट चिरंजीवियों में लिया जाता है। इस मान्यता से जुड़ा एक श्लोक भी है-
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात- अश्वथामा, बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।
अश्वत्थामा को अधिक ज्ञान देना चाहते थे द्रोणाचार्य
महाभारत के अनुसार, द्रोणाचार्य जब कौरवों व पांडवों को शिक्षा दे रहे थे, तब उनका एक नियम था। उसके अनुसार, द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों को पानी भरने का एक-एक बर्तन दिया था। जो सबसे पहले उस बर्तन में पानी भर लाता था, द्रोणाचार्य उसे धनुर्विद्या के गुप्त रहस्य सिखा देते थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर विशेष प्रेम था, इसलिए उन्होंने उसे छोटा बर्तन दिया था।
जिससे वह सबसे पहले बर्तन में पानी भर कर अपने पिता के पास पहुंच जाता और शस्त्रों से संबंधित गुप्त रहस्य समझ लेता था। अर्जुन ने वह बात समझ ली। अर्जुन वारुणास्त्र के माध्यम से जल्दी अपन बर्तन में पानी भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाते और गुप्त रहस्य सीख लेते। इसीलिए अर्जुन किसी भी मामले में अश्वत्थामा से कम नहीं थे।
जब अश्वत्थामा ने चलाया नारायण अस्त्र
युद्ध में जब धृष्टद्युम्न ने छल से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था तो अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हुए। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने पांडवों पर नारायण अस्त्र चलाया। इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों की सेना में खलबची मच गई। अश्वत्थामा ने इस अस्त्र के बारे में दुर्योधन को बताया- यह अस्त्र गुरु द्रोण को स्वयं भगवान नारायण ने दिया था। यह शत्रु का नाश किए बिना नहीं लौटता। नारायणास्त्र से अनेक प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश भी संभव है।
जब श्रीकृष्ण ने देखा कि नारायण अस्त्र से सेना भाग रही है और पांडवों के प्राण भी संकट में हैं, तब उन्होंने कहा – सभी अपने-अपने रथों व अन्य सवारियों से उतरकर, अपने शस्त्रों को नीचे रखकर इस अस्त्र की शरण में चले जाओ। नारायण अस्त्र की शांति का यही एकमात्र उपाय है। सभी ने श्रीकृष्ण की यह बात मान ली। इस प्रकार नारायण अस्त्र का प्रकोप शांत हुआ और पांडवों के प्राण बच गए।
जब श्रीकृष्ण-अर्जुन पर नहीं हुआ आग्नेय अस्त्र का असर
नारायण अस्त्र के विफल होने पर अश्वत्थामा ने आग्नेयअस्त्र का प्रयोग किया। ये अस्त्र भी महाभयंकर था। इसकी अग्नि से पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। उस अस्त्र के प्रभाव से हवा गरम हो गई। बड़े-बड़े हाथी चारों और चिघांड़ते हुए गिरने लगे। तब अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र चलाया। ब्रह्मास्त्र चलाते ही फिर से हवा गति से चलने लगी। अर्जुन, श्रीकृष्ण व उनके रथ पर भी आग्नेय अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ।
अर्जुन व श्रीकृष्ण पर आग्नेय अस्त्र का कोई भी प्रभाव न होते देख अश्वत्थामा को बहुत आश्चर्य हुआ। तभी महर्षि वेदव्यास वहां आए और उन्होंने अश्वत्थामा को बताया कि श्रीकृष्ण व अर्जुन भगवान नर-नारायण के अवतार हैं। उन पर किसी भी अस्त्र का प्रभाव नहीं हो सकता। पूर्व समय में भगवान नारायण ने तपस्या करके भगवान महादेव से अनेक वरदान प्राप्त किए हैं। उसी के प्रभाव से उन पर विजय पाना संभव नहीं है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अश्वत्थामा रणभूमि से चले गए।
अश्वत्थामा ने मांग लिया कृष्ण का सुदर्शन चक्र
एक बार अश्वत्थामा द्वारिका गए। भगवान कृष्ण ने उसका बहुत स्वागत किया और उसे अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया। कुछ दिन वहां रहने के बाद एक दिन अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो उसका अजेय ब्रह्मास्त्र लेकर उसे अपना सुदर्शन चक्र दे दें। भगवान ने कहा ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए।
अश्वत्थामा ने भगवान के सुदर्शन चक्र को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ। उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे असफलता मिली। उसने हारकर भगवान से चक्र न लेने की बात कही। अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुए। वह बिना किसी शस्त्र-अस्त्र को लिए ही द्वारिका से चले गए।
कौरवों का अंतिम सेनापति था अश्वत्थामा
जब भीम ने गदा युद्ध में दुर्योधन की जांघें तोड़ दी और मरने के लिए छोड़ दिया, तब वहां अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा आए। दुर्योधन को उस अवस्था में देख अश्वत्थामा ने प्रण किया कि वह पांडवों से बदला लेगा। दुर्योधन के कहने पर कृपाचार्य ने अश्वत्थामा को सेनापति बनाया। अश्वत्थामा ने सोचा कि रात के समय पांडव आदि वीर विजय प्राप्त कर अपने-अपने शिविरों में आराम कर रहे होंगे। अत: इसी अवस्था में उनका वध करना संभव है। (श्रीकृष्ण व पांडव उस समय कौरव शिविर में थे, ये बात अश्वत्थामा नहीं जानता था)। कृपाचार्य ने अश्वत्थामा से कहा कि रात्रि में सोते हुए वीरों पर प्रहार करना नियम विरुद्ध है, लेकिन अश्वत्थामा ने कृपाचार्य की बात नहीं मानी। अंत में कृपाचार्य व कृतवर्मा भी अश्वत्थामा का साथ देने के लिए राजी हो गए।
महादेव से युद्ध किया था अश्वत्थामा ने
पांडवों से बदला लेने के उद्देश्य से अश्वत्थामा जब रात के समय उनके शिविर तक पहुंचा। तो उसने देखा कि पांडवों के शिविर के बाहर एक विशालकाय पुरुष दरवाजे पर खड़ा है। उसने बाघ तथा हिरण की खाल पहन रखी है। उसकी अनेक भुजाएं हैं और उन भुजाओं में तरह-तरह के शस्त्र हैं। उसके मुख से आग की लपटें निकल रही हैं।
उस पुरुष के तेज से हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। वह स्वयं भगवान महादेव ही थे। महादेव के उस भयंकर रूप को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं और उन पर दिव्यास्त्रों से प्रहार करने लगा, लेकिन उन अस्त्रों का महादेव पर कोई असर नहीं हुआ। यह देख अश्वत्थामा भगवान शंकर की उपासना करने लगा और स्वयं की बलि देने लगा।
तब महादेव ने अश्वत्थामा से कहा कि श्रीकृष्ण ने तपस्या, नियम, बुद्धि व वाणी से मेरी आराधना की है। इसलिए उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा भी मैं उन्हीं के लिए कर रहा था। किंतु कालवश अब ये निस्तेज हो गए हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है। ऐसा कहकर महादेव ने अश्वत्थामा को एक तलवार दी और स्वयं को अश्वत्थामा के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार अश्वत्थामा अत्यंत तेजस्वी हो गया।
अश्वत्थामा ने किया था द्रौपदी के पुत्रों का वध
महादेव से शक्ति प्राप्त कर अश्वत्थामा ने पांडवों के शिविर में प्रवेश किया। अश्वत्थामा ने सबसे पहले द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न को पीट-पीट कर मार दिया। इसके बाद अश्वत्थामा ने उत्तमौजा, युधामन्यु, शिखंडी आदि वीरों का भी वध कर दिया। उसके बाद अश्वत्थामा ने महादेव की तलवार से द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों का भी वध कर दिया।
देखते ही देखते अश्वत्थामा ने पांडवों की बची हुई सेना का भी सफाया कर दिया। इस प्रकार का भयंकर कर्म करने के बाद अश्वत्थामा शिविर से बाहर आया और उसने पांचाल वीरों व द्रौपदी के पुत्रों के वध के बारे में कृतवर्मा व कृपाचार्य को बताया। तीनों ने निश्चय किया कि ये समाचार तुरंत ही दुर्योधन को बताना चाहिए।
ऐसा विचार कर ये तीनों दुर्योधन के पास पहुंचे। उस समय तक दुर्योधन ने प्राण नहीं त्यागे थे। दुर्योधन के पास जाकर अश्वत्थामा ने उसे बताया कि इस समय पांडव पक्ष में केवल श्रीकृष्ण, सात्यकि और पांडव ही शेष बचे हैं, शेष सभी का वध हो चुका है। ये समाचार सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हुआ पर थोड़ी ही देर में उसके प्राण निकल गए।
श्रीकृष्ण ने दिया था अश्वत्थामा को श्राप
जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।
अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी से बात नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर से पीब व रक्त बहता रहेगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।
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